“ग्रामगीत प्रकृति के उद्गार हैं। इनमें अलंकार नहीं, केवल रस है! छन्द नहीं, केवल लय है!! लालित्य नहीं, केवल माधुर्य है!!! ग्रामीण मनुष्यों के स्त्री-पुरुषों के मध्य में हृदय नामक आसन पर बैठकर प्रकृति गान करती है। प्रकृति के वे ही गान ग्रामगीत हैं।”
-रामनरेश त्रिपाठी
कविता कौमुदी, भाग-5, प्रस्तावना, पृ०-1-2
-रामनरेश त्रिपाठी
कविता कौमुदी, भाग-5, प्रस्तावना, पृ०-1-2
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