Wednesday, August 15, 2018

कला गाँवों में पनपती है

माखन लाल चतृर्वेदी जी अपने निबंध "कला और गाँव" में लिखते हैं---

"कला गाँवों में पनपती है, शहरों में नहीं। हम पकवान खाकर रसोइये पर प्रसन्न होते हैं- काश किसान पर रीझते तो कितना अच्छा होता ? जिस समय सिर पर से पानी बहता हो, गले में साँप सोने न दे रहा हो, बदन पर लिपटा चिथड़ा हो और पास में पार्वती-पर्वत पुत्री खड़ी पसीना पोंछ रही हो, जब ऐसे उस गरीब पर मस्तक झुके तभी कला की सच्ची पूजा है- शंकर-पूजा है। वह किसान ही हमारा शंकर है। साँप टैक्स है, चिथड़ा गरीबी है, पार्वती उसकी पत्नी है। साहित्यिक कहता है, मेरी कविता में अलंकार है, मेरी कला सुन्दर है। मुझे उस किसान से क्या सम्बंध ? भाड़ में जाय तेरा अलंकार और तेरी कला। अलंकार खेतों में लहलहा रहे हैं और तू अपने अलंकार और कला को चिल्ला रहा है। मानव के इतने बड़े दुश्मन, तुझे हम साहित्यक कहें....।"

-माखनलाल चतुर्वेदी

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